Psychological and Social Impact of Lock Down लॉकडाउन के मनो-सामाजिक प्रभाव
Covid-19 महामारी द्वारा लाई गई पूर्णबंदी ने लोगों को अलगाव की दर्दनाक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। सामाजिक दूरी(Social Distancing) जानलेवा वायरस के डर से भी ज़्यादा लोगों को मार रही है। यूँ तो लोग सोशल मीडिया के माध्यम से जुड़े हुए हैं इसके बावज़ूद भी लोग अत्यधिक बेचैन और उत्तेजित हो रहे हैं। देश में घरेलू हिंसा के मामले दोगुने से अधिक हो गए हैं। महामारी के तत्काल ख़तरे से निपटने के लिए लगाई गई तालाबंदी(Lock Down) की वज़ह से लोगों का दैनिक जीवन तितर-बितर हो गया है और बाज़ारों में भी भारी गिरावट आई है।
यह ज़रूरी है कि महामारी और इस लम्बी अबधि की तालाबंदी (Lock Down)के दूरगामी परिणामों से निपटने की कोई योजना तत्काल प्रभाव से बनाई जाय।
मनुष्य एक सामाजिक(Social) प्राणी है और एक ऐसे समाज में रहने का आदी है जहाँ परस्पर संवाद बहुत मायने रखते हैं। परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों से अलग-थलग रहना ज़्यादातर लोगों के लिए असंतुलित और दर्दनाक़ हो सकता है परिणामस्वरूप अल्पकालिक या दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक(Psychological) और शारीरिक(Physical) स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। अप्रत्याशित रूप से आये इस अलगाव की वज़ह से चिंता, आक्रामकता, अवसाद, विस्मृति और मतिभ्रम के स्तर में वृद्धि जैसे मनोवैज्ञानिक(Psychological) प्रभाव संभावित हैं।
जो लोग पहले से ही किसी तरह की मानसिक परेशानी(Psychological Challenge) में हैं उनके लिए और जो अतिसंवेदनशील हैं उन लोगों के लिए तो स्थितियाँ भयावह हो ही सकती हैं लेकिन ऐसे लोग जिन्हें पूर्व में कोई समस्या नहीं है वो भी ऐसी मानसिक(Psychological) समस्याओं में फंस सकते हैं।
व्यक्तिगत संबंध हमें तनाव से निपटने में मदद करते हैं, और अगर हम किसी कारण से इन सबंधों को खो देते हैं, तो इससे एक बहुत बड़ा भावनात्मक शून्य पैदा होता है, जो एक सामान्य व्यक्ति के लिए मुश्किल होता है। अलगाव के दिनों में चिंता और अवसाद के स्तर में वृद्धि हो सकती है। इस दौरान समाचार माध्यमों और सोशल मीडिया के माध्यम से बार-बार लगातार इस महामारी को एक प्राणलेवा बीमारी बताकर और ग़लत जानकारियाँ परोस कर लोगों को मानसिक और शारीरिक(Psychosomatic) रूप से बीमार किया जा रहा है।
ज़ेलों में अकेले रखे गए क़ैदियों और अस्पतालों में पृथक रखे गए मरीज़ों में अक्सर प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक(Psychological) प्रभाव जैसे चिंता, घबराहट और मानसिक उन्माद में वृद्धि देखने को मिलते हैं। सामाजिक अलगाव(Social Distancing) की वज़ह से लोग अक्सर नशे के आदी भी हो जाते हैं।
तालाबंदी (Lock Down)के कारण कुछ लोग मज़बूरन सामाजिक(Social) अलगाव की स्थिति में हैं। कई युवा अपने परिवारों से दूर, शहरों के छोटे-छोटे कमरों में खाना पकाते और खाते पड़े हैं। कई वरिष्ठ नागरिक जो अकेले रहते हैं अपने पड़ोस के पार्कों में, हमउम्र साथियों के साथ बैठकर समय बिताया करते थे, आज वे अपने आप को नीरस, सामाजिक(Social) संपर्क और अपने बच्चों से, जो कभी-कभार मिलने आ जाया करते थे वंचित पाते हैं। इस बंदी का बच्चों पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है, साथियों के साथ न खेल पाने और दिनभर घरों में क़ैद रहने की वज़ह से बच्चे चिड़चिड़े और तुनकमिज़ाज हो रहे हैं।
परिवार के साथ छोटे घर में रहना किसी का भी सपना नहीं होता। हमारे देश में कम आय वर्ग वाले बड़ी संख्या में लोग अपने परिवारों के साथ एक कमरे के मकान में रहते हैं जो अत्यंत ही दमनकारी और डरावना है। इनके बच्चों के पास घर के भीतर खेलने की सुविधा नहीं होती। ऐसे परिवारों की कमाई तो भोजन और जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को ही पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं होती।
दूसरी ओर, ऐसे परिवारों में अक्सर ऐसे बेकार, लड़ाकू, शराबी और उत्पाती पति, भाई-बहन या माता-पिता भी होते हैं जो घर में रहकर उत्पात मचाते हैं। महिलाओं के ख़िलाफ़ आत्महत्या और शारीरिक शोषण की घटनाओं में दुनिया भर में वृद्धि हुई है। घबराहट, चिंता और अवसाद व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी प्रभावित करते हैं, जिससे वे बीमारी के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
दीर्घकालिक तालाबंदी(Lock Down) समाजों में सामाजिक(Social), आर्थिक (Economic) और धार्मिक(Religious) उथल-पुथल लाती है। 14 वीं शताब्दी की ब्लैक डेथ महामारी, ने चीन की आधी आबादी और यूरोप में एक-तिहाई लोगों की नींदे उड़ा दी थी, इस महामारी ने सभी सामाजिक(Social) वर्गों पर प्रहार किया, लेकिन निम्न वर्ग संकीर्ण और अस्वस्थ वातावरण में रहने के कारण बदतर स्थिति में थे। खेतों और कारख़ानों में काम बंद होने से कामग़ारों का एक बड़ा समूह नष्ट हो गया था। निर्मित वस्तुओं की लागत कम करने के लिए कामग़ारों की मज़दूरी कम कर दी गई।
मौत और विनाश की भारी कीमत पर, हालांकि कुछ सकारात्मक परिणाम भी थे। इसने सामंतवाद पर कड़ा प्रहार किया गया, और दैनिक वेतन भोगी मज़दूर सेवा शर्तों पर बात कर सकते थे। आर्थिक असमानता में व्यापक कमी आई और कामग़ारों की जीवनशैली बेहतर होने लगी। लोग धार्मिक मान्यताओं की बज़ाय अस्तित्व और आजीविका के लिए विज्ञान की ओर आकर्षित होने लगे।
आज सवाल यह नहीं है कि क्या Covid-19 महामारी के कारण समान सामाजिक-राजनीतिक(Social-Political) परिवर्तन होंगे; विशेषज्ञों का कहना है कि यह एक लंबी और हानिकारक लड़ाई होने जा रही है। इसके लिए दीर्घकालिक योजना बनानी होगी। हमारी आबादी की स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक क्षति(Psychological Damage) को नियंत्रित करने के लिए, हमें अपनी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को अधिकतम संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए मज़बूत करने की आवश्यकता है। हमें वंचित वर्गों के बीच भोजन और बुनियादी आवश्यकताओं के समान वितरण का प्रबंध करना होगा।
तालाबंदी से पहले उनकी चिंताओं को नजरअंदाज़ करके हम बुरी तरह फंस गए हैं। इस दिशा में अब यदि व्यापक प्रयास नहीं किए गये तो भोजन के लिए दंगे और लूट्पाट जैसी अप्रिय घटनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। सरकारों को समाज में विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए तत्काल प्रभावी क़दम उठाने होंगे।
यदि इस महामारी की वज़ह से मृत्यु दर बढ़ती है तो इसका सीधा मतलब होगा कई परिवारों को अपने कमाने वाले सदस्यों को खोना पड़ेगा और इसका सीधा भार हमारी कल्याणकारी संस्थाओं(Welfare organizations) पर पड़ेगा। अब तक के आँकड़ों के अनुसार भारत में मृतकों की संख्या 22-40 वर्ष के आयु वर्ग के पुरुषों में सर्वाधिक है, जो सबसे अधिक कमाई करने वाला वर्ग है।
यदि हम भय और अनिश्चितता में फंसे लोगों पर नज़र डालें तो उनमें से अधिकतर लोग चिंता, अवसाद और हताशा से ग्रस्त हैं, यह एक ज्वालामुखी की तरह है, जो ज़रा से उकसावे से ही फट सकता है। ऐसे मुश्किल समय में पूरी दुनिया में अक्सर अपराध दर में वृद्धि, विरोध और सामाजिक अशांति(Social Unrest) को देखा गया है।
ख़ासकर हमारे देश में, जहाँ साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल बार-बार सत्ता हासिल करने के लिए किया जाता है यह स्थिति और भी ख़तरनाक़ हो सकती है। पिछ्ले दिनों जिस तरह से महामारी के दौरान कई घटनाओं का साम्प्रदायिककरण करने की कोशिश की गई और समाजिक सौहार्द्य को बिगाड़ने का प्रयास किया गया यह अपनेआप में एक बेहद चिंताजनक बात है। इस तरह की कोशिशें हमारे धर्मनिरपेक्ष(Secular) ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देगा और साम्प्रदायिक हिंसा(Communal Violence) का रूप ले सकता है जो इस महामारी(Epidemic) से हमारी लड़ाई को कमज़ोर कर देगा।
मुश्किल समय अभी बीता नहीं है, हमें नहीं पता आगे क्या होने वाला है, तो आइए हम सब मिलकर आने वाले दिनों को और बुरा न बनने दें, मिलकर, एक-दूसरे की मदद करते हुए इस आपदा का सामना करें। यक़ीन जानिए हम सब मिलकर इस अदृश्य दुश्मन को ज़रूर परास्त कर देंगे। क्योंकि
“मुश्किलें हमेशा हारती हैं, संघर्ष करने वाले हमेशा जीतते हैं।“
रॉबर्ट एच. शुलर